कविता:
व्यस्तता
आज हम हर पल व्यस्तता का बहाना बना रहे हैं
व्यस्तता की आड़ लेकर अपनों से ही बहुत दूर हुऐ जा रहे हैं
जरा सोचिए,
दिल से सोचिए
कहीं हम रिश्तों के नाम पर औपचारिकता तो नहीं निभा रहे हैं
आज हम हर पल व्यस्तता का बहाना बना रहे हैं
पहले जब कोई दुःख में होता था
हमारा प्यारा
हम दुःख बंटने पहुँच जाते थे
बन के उस का सहारा
सच्चे मन से उस के काम आते थे
दिल से रिश्ते नाते निभाते थे
अब तो अपनों के मरने पर भी हम
व्यस्तता का बहाना बना रहे हैं
दस मिनट बैठ कर
दुःख बंटाने की नौटंकी किए जा रहे हैं
जरा सोचिए ,
दिल से सोचिए
कहीं हम रिश्तों के नाम पर ओपचारिकता तो नहीं निभा रहे हैं
पहले हम शादी विवाह में जाते थे
नाचते थे गाते थे
दूल्हा दुल्हन के साथ रस्में निभाते थे
अब हम व्यस्त्त्ता का बहाना बना रहे हैं
सब रस्मों को छोड खाने के समय पर जाने
और खाना खाने की एक मात्र रसम निभा रहें हें
थमा हाथ में शगुन का लिफाफा
बहुत-बहुत बधाई हो कह कर
मुस्कुराते हुऐ वापिस चले आ रहें हैं
जरा सोचिए ,
दिल से सोचिए
कहीं हम रिश्तों के नाम पर ओपचारिकता तो नहीं निभा रहे हैं
पहले हम रिश्तेदारों को पत्र लिखते थे
हर एक एक शब्दों को पढ़ कर
पत्र भेजने वालों के चेहरे दिखते थे
मन भर आता था
सिसकियों के साथ साथ आंसूं भी टपक जाते थे
अब तो हम तो हम
दो शब्दों के ईमेल या s.m. s. से ही रिश्तों को निभाने का काम चला रहें हैं
छोड की प्रेम की रीत
भावनाओं की खिली उड़ा रहें है
जरा सोचिए ,
दिल से सोचिए
कहीं हम रिश्तों के नाम पर ओपचारिकता तो नहीं निभा रहे हैं